गौतम सुमन गर्जना
भागलपुर : प्राचीन काल में अंग महाजनपद के नाम से विख्यात रहे भागलपुर में देवी मां काली की पूजा तथा इसके विसर्जन शोभायात्रा की पुरातन परम्परा है।
कार्तिक मास के अमावस की रात्रि को मनायी जानेवाली यह पूजा श्यामा पूजा अथवा निशा पूजा के नाम से भी जानी जाती है। काली पूजा के अवसर पर यहां के विभिन्न टोलों-मुहल्लों व आसपास के क्षेत्रों में कुल 108 प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं, जो विशाल आकार की होती हैं तथा साज-सज्जा से युक्त पूजा पंडालों-मंदिरों में स्थापित की जाती हैं और इनकी शोभा देखते ही बनती है।
जिस तरह से बड़ी संख्या में यहां पर मां काली की प्रतिमाएं बैठती हैं, उसी तरह इन प्रतिमाओं के विसर्जन की शोभायात्रा भी वृहत् पैमाने पर निकलती है, जिसकी न सिर्फ बिहार, वरन् अन्य प्रांतों में भी प्रसिद्धि है। यहां स्थापित होनेवाली कुल 108 प्रतिमाओं में करीब 78-80 विसर्जन शोभायात्रा में शामिल होती हैं। जबकि अन्य निकट के तालाबों में विसर्जित कर दी जाती हैं।
देवी दुर्गा की भृकुटि से अवतरित हुईं मां काली- चामुण्डा भी कहलाती हैं
मां काली दुर्गा के दशावतारों में एक हैं, जिनका आविर्भाव देवी दुर्गा की भृकुटि अर्थात् ललाट से हुआ है। दुर्गा सप्तशती के अनुसार ये देवी दुर्गा की सहचरी हैं एवं चण्ड-मुण्ड नामक दानवों का संहार करने के कारण चामुण्डा कहलाती हैं।
संहार की देवी हैं मां काली
श्रृष्टि के सतत् परिवर्तन शील लौकिक चक्र में काली संहार की देवी के रूप में पूजित हैं। इन्होंने प्रकृति के किसी रंग को धारण नहीं किया, इस कारण इनका वर्ण काला है।
भागलपुर में साकार होता है काली का विविध रूप
भागलपुर में स्थापित होनेवाली काली प्रतिमाओं में उनका विविध रूप दर्शित होता है,जो यहां की धार्मिक, सांस्कृतिक व लोक आस्था का प्रतीक है। यहां वे कई नामों से पुकारी जाती हैं। यहां के परबत्ती, इशाकचक व हबीबपुर मोमिन टोला में ये बुढ़िया काली कहलाती हैं, तो मंदरोजा में हड़बड़िया काली, रिकाबगंज में नवयुगी काली, उर्दू बाजार व बूढ़ानाथ में मसानी काली, बरमसिया काली, रति काली, जुबली काली व बम काली आदि नामों से पुकारी जाती हैं। जिले की सबसे ऊंची काली नाथनगर के बहावलपुर में स्थापित होती हैं, जो 30-32 फीट की होती हैं। मानिक सरकार की कालीबाड़ी की काली, जहां भागलपुर की सरजमीं पर विद्यमान अंग-बंग संस्कृति को दर्शाता है, तो सोनापट्टी व मुंदीचक की स्वर्ण आभूषणों से विशेष रूप से सुसज्जित काली यहां की आर्थिक समृद्धि व परबत्ती की काली सांस्कृतिक भव्यता को प्रदर्शित करती हैं।
साधक बामा खेपा की साधना-स्थली
भागलपुर में तंत्र व मंत्रयान के केंद्र विक्रमशिला के स्थित होने तथा शैव व शाक्त मतों के संघर्ष तथा समन्वय भूमि होने के कारण यहां तंत्र-मंत्र का प्राबल्य रहा है। यही कारण है कि निकट के पश्चिम बंगाल के रामपुरहाट में स्थित सुप्रसिद्ध तंत्र पीठ तारापीठ के बामा खेपा ने भागलपुर को भी अपनी साधना स्थली बनायी थी।
गौरतलब हो कि चंपानगर के ठाकुर काली मंदिर में बामा खेपा ने साधना की थी तथा यहां उन्होंने पंचमुंडी आसन स्थापित किया था। बरारी के श्मशान में भी उन्होंने साधना की थी, वो श्मशान की मिट्टी से बरारी के चटर्जी बाड़ी काली मंदिर में पिण्ड की स्थापना की थी, जहां आज भी दिन-रात दीप प्रज्ज्वलित होता रहता है।
अद्भूत होती है विसर्जन शोभायात्रा की छटा
भागलपुर में कुल स्थापित 108 काली प्रतिमाओं में 80 के करीब विसर्जन शोभायात्रा में शामिल होती हैं, जिसकी भव्यता निराली होती है। इसे देखने के लिये सड़क के दोनों किनारों पर व घर की छतों पर हजारों श्रद्धालुओं की भीड़ लग जाती है। ये सारी प्रतिमाएं स्टेशन चौक पर इकट्ठी होती हैं, जहां से पांच किमी विसर्जन घाट का रास्ता चौबीस घंटों में तय होता है। विभिन्न पूजा समितियों के सदस्य अस्त्र शस्त्र व अखाड़े का प्रदर्शन करते हुए चलते हैं। विसर्जन शोभायात्रा के दौरान पारम्परिक रूप से खलीफाबाग चौक पर परबत्ती की बुढ़िया काली और जोगसर की बम काली का मिलन होता है, जिनका विशेष महात्म्य है। इस मिलन के समय पारम्परिक रूप से परबत्ती काली की प्रतिमा का मुंह उत्तर की ओर व बम काली का दक्षिण दिशा में रहता है जो मिलन के पश्चात पहले की मुद्रा में आ जाती हैं। निरंतर लोकप्रियता की अग्रसर शोभायात्रा में 1954 में जहां 19 प्रतिमाएं शामिल होती थीं, वहीं सम्प्रति 80 के करीब मूर्तियां शरीक होती हैं।
श्रीश्री 108 केन्द्रीय काली महारानी महानगर महासमिति की होती है समन्वयकारी भूमिका
भागलपुर में वृहत् पैमाने पर होनेवाली काली पूजा, जिसमें श्री श्री108 केन्द्रीय काली पूजा महासमिति के नेतृत्व मे पूजन-अर्चन-दर्शन हेतु हजारों लोग शामिल होते हैं, के सुगम संचालन में काली महारानी केंद्रीय महानगर केंद्रीय समिति की समन्वयकारी भूमिका होती है, जो जिला प्रशासन और मुहल्ला समितियों के बीच तालमेल कर इसे शांतिपूर्वक संपन्न कराती है।
इस महासमिति का गठन 1954 में डॉ मेजरवार के पी सिन्हा, राजेंद्र प्रसाद गुप्ता व तारिणी प्रसाद मिस्त्री के द्वारा किया गया था। पहली बार कतारबद्ध ढंग से शोभायात्रा निकालने की शुरुआत वाली परंपरा आज व्यापक रूप ग्रहण कर लिया है।
सद्भाव की प्रतीक है काली विसर्जन शोभायात्रा
सदियों से भागलपुर में सद्भाव की गंगा-जमुनी धारा बहती आई है, जहां विभिन्न जाति-समुदाय के लोग न सिर्फ अपना सुख-दुख बांटते हैं, वरन् मिल-जुलकर एक-दूसरे के पर्व-त्यौहार भी मनाते हैं और जिसके अक्श काली पूजा में साफ दिखाई देता है। मुस्लिम भाई न सिर्फ काली पूजा के अवसर पर होनेवाली पर जिला एवं थाना स्तर की शांति समितियों में शिरकत करते हैं, वरन् अपने मुहल्लों से विसर्जन शोभायात्रा गुजरते समय जुलूस का स्वागत करते हैं और प्रेम-सद्भाव के साथ महासमिति के सदस्यों को गले लगाते हैं।
पर्यटन की है अपार संभावनाएं
दीपावली के अवसर पर घर-घर में सुसज्जित होने वाली दीप मालिकाओं के बीच प्रति वर्ष अति मांगलिक वातावरण में भागलपुर में काली पूजा मनाई जाती रही है, जिसका स्वरुप अति विशिष्ट व मनोरम होता है। सूबे- बिहार तथा पूरे देश में अपने ढंग की अनूठी भागलपुर की काली पूजा विसर्जन शोभायात्रा के प्रति दर्शनिर्थियों का विशेष आकर्षण रहता है। इसे मुंगेर के दुर्गापूजा विसर्जन यात्रा तथा पश्चिम बंगाल के चंदनपुर की षष्ठी पूजा की तरह संवारकर पर्यटन को बढ़ावा दिया जा सकता है। महासमिति के लोग वर्षों से इस ऐतिहासिक काली पूजा विसर्जन यात्रा को राष्ट्रीय मेला घोषित करने की मांग करते रहे हैं।हालांकि इस बार वैश्विक महामारी कोरोना को लेकर यह राष्ट्रीय मेला कुछ फीका-फीका सा दिख रहा है। बावजूद इसके राज्य व केंद्र सरकार की निगाहें भागलपुर के इस काली पूजा विसर्जन यात्रा पर टिकी हुई हैं ।