बद्रीप्रसाद गुप्ता, लातेहार।
10 मुहर्रम को करबला में शहीद कर दिए गए थे इमाम हुसैन।
लातेहार : त्याग, तपस्या तथा बलिदान की कोई न कोई दास्तान दुनिया के लगभग सभी धर्मों तथा विश्वासों से जरूर जुड़ी हुई है, क्येंकि कालांतर में लगभग सभी धर्मों के अपने अनुयाइयों को जहां सच्चाई की राह पर चलने की प्रेरणा दी तथा असत्य और जुल्म के विरुद्ध आवाज बुलंद करने की शिक्षा दी, वहीं लगभग पत्येक दौर में असत्य, हिंसा तथा राक्षसी पवृत्ति का अनुसरण करने वाले लोग भी इस संसार में सक्रिय रहे, जाहिर है ऐसे दुष्ट लोगों के जुल्मो – सितम का शिकार उन निर्दोष महापुरुषों को ही होना पड़ा, यह बातें सामाजिक कार्यकर्ता अयुब ने कही, आगे कहा इस्लाम धर्म में भी ऐसी ही एक घटना जिसे दुनिया दास्तान – ए – करबला के नाम से जानती है, इराक के करबला नामक स्थान पर घटित हुई करबला की दास्तान जहां सच्चाई, त्याग, सहनशक्ति, कर्तव्य, धर्मपरायणता तथा वफादारी की मिसाल पेश करती है, वहीं इसी के दूसरे पक्ष में जुल्म, बर्बरता, अधर्म,तथा हैवानियत व सत्ता लोभ का चरमोत्कर्श नजर आता है,
आज से लगभग 1450 वर्ष पूर्व भी हजरत मोहम्मद के नवासे हजरत हुसैन ने यजीद जैसे दुष्ट, कुरूर व अत्याचारी सीरियाई शासक को एक इस्लामी राष्ट्र के मुस्लिम बादशाह के रूप में मान्यता देने से इंकार कर दिया था,
और आज भी उसी यजीदियत की राह पर चलने वाले आईएस को दुनिया का कोई भी देश मान्यता देना तो दूर बल्कि उसकी सभी हिंसक गतिविधियों की घोर निंदा करता दिखाई दे रहा है,
हजरत इमाम हुसैन ने यजीद जैसी मजबूत व भारी-भरकम सेना अपने पास न होने के बावजूद अपने परिवार के 6 माह के बच्चे अली असगर से लेकर 80 वर्ष के पारिवारिक बुजुर्ग मित्र हबीब इबने मजाहिर जैसे वफादार साथियों की मात्र 72 लोगों की जांबाज टोली के साथ करबला के मैदान में विशाल यजीदी लश्कर का सामना करते हुए अपना व अपने साथियों का बलिदान देकर इस्लाम धर्म की रक्षा की थी,
जिस विशाल यजीदी सेना को मात्र 72 लोगों ने अपनी कुर्बानी देकर परास्त कर दिया था तथा उसे नैतिक पतन की उस मंजिल तक पहुंचा दिया था कि आज यजीद न केवल जुल्मो-सितम, कूरता व बर्बरता की एक मिसाल बन चुका है बल्कि आज कोई माता-पिता अपने बच्चे का नाम तक यजीद नहीं रखते। हजरत इमाम हुसैन ने 10 मोहर्रम यानि रोजे आशूरा की एक दिन की करबला की लड़ाई में अपनी व अपने परिजनों की कुर्बानी देकर वह इतिहास लिखा जो दुनिया में एक मिसाल के तौर पर याद किया जाता रहेगा।
हजरत इमाम हुसैन ने अपने नाना पैगंबर-ए-रसूल हजरत मोहम्मद व पिता हजरत अली की पेरणा व उनकी शिक्षाओं से पेरित होकर तत्कालीन सीरियाई शासक यजीद के विरुद्ध अपनी जान देकर तथा अपने 6 माह के बच्चे अली असगर, 18 वर्ष के जवान बेटे अली अकबर,भाई हजरत अब्बास, भतीजे हजरत कासिम व भांजे औन-ओ-मोहम्मद जैसे सहयोगियों की कुर्बानियां देकर दुनिया के उस समय के सबसे बड़े व मजबूत शासक यजीद को धूल चटा दी। उसी समय से यह कहावत पचलित हो चली है कि `मरो हुसैन की सूरत जियो अली की तरह’। गोया सच्चाई की राह पर चलने वालों को हिंसा, जुल्म, अन्याय तथा अधर्म के विरुद्ध हर हाल में अपनी आवाज बुलंद करनी चाहिए। चाहे हाथों में तलवार उठाकर असत्य का नाश कर यह काम किया जाए या फिर अपनी जान की बाजी लगाकर अपनी व अपने परिवार के लोगों की कुर्बानियां देकर असत्य व अधर्म का मुकाबला किया जाए।
गौरतलब है कि यजीद अपने पिता मुआविया के बाद उत्तराधिकारी के रूप में शाम (आज का सीरिया) के सिंहासन पर बैठ गया। यजीद व्यक्तिगत रूप से अत्यंत दुराचारी, दुष्ट, अधर्मी,अत्याचारी तथा अत्यंत दुश्चरित्र व्यक्ति था। हजरत मोहम्मद के सगे नाती होने के नाते हजरत इमाम हुसैन, हजरत मोहम्मद व अपने पिता हजरत अली के देहांत के बाद इस्लाम धर्म से संबंधित नीतिगत फैसले लेने हेतु अधिकृत थे। उस समय किसी भी इस्लामी देश के शासक को हजरत इमाम हुसैन द्वारा ही इस्लामी राज्य होने या न होने की मान्यता पदान की जाती थी। यजीद ने भी गद्दी पर बैठने के बाद हजरत इमाम हुसैन से उसे इस्लामी राज्य शाम (सीरिया) का राजा स्वीकार करने का निवेदन किया। हजरत इमाम हुसैन उस समय अपने नाना के शहर मदीने में रहा करते थे तथा वहीं से सभी इस्लामिक गतिविधियों संचालित हुआ करती थीं। यजीद के शाम की गद्दी पर बैठते ही पूरी दुनिया में उसके राक्षसी स्वभाव व उसकी दुश्चरित्रता के चर्चे होने लगे। पूरी दुनिया ने इस ओर नजरें गड़ाकर देखना शुरू कर दिया कि देखें आखिर हजरत इमाम हुसैन यजीद जैसे बदचलन व बदकिरदार बादशाह को एक इस्लामी हुकूमत के बादशाह की हैसियत से मान्यता पदान करते हैं अथवा नहीं। यजीद ने पहले तो हजरत इमाम हुसैन से वार्ताओं के द्वारा उन्हें अपने पक्ष में समझाने-बुझाने की कोशिश की। उसने अपने कई पतिनिधि मदीना भेजे। मगर हजरत इमाम हुसैन ने पत्येक वार्ताकार से यजीद को शाम का बादशाह तथा एक इस्लामी देश का सरबराह मानने से साफ इंकार कर दिया। उसके पश्चात यजीद ने हजरत इमाम हुसैन को धमकियां देना शुरू कर दिया। उसने हजरत इमाम हुसैन को कत्ल करने के लिए मदीना पर चढ़ाई करने की धमकी दी। हजरत इमाम हुसैन मदीना जैसे पवित्र स्थान पर लड़ाई व खून-खराबा नहीं होने देना चाहते थे। उन्होंने बिना खून-खराबे के बातचीत का समाधान निकालने की अंतिम कोशिश के रूप में अपने एक चचेरे भाई हजरत मुस्लिम को शाम के दरबार में यजीद के पास अपना राजदूत बनाकर भेजा। हजरत मुस्लिम को अपने ही शहर में यजीद के सैनिकों तथा उसके समर्थकों ने बड़ी ही बर्बरता के साथ मार डाला। यह भी विश्व इतिहास की अकेली ऐसी घटना है जबकि किसी वार्ताकार अथवा राजदूत की दूसरे देश के लोगों ने हत्या कर दी हो। इस घटना की खबर मिलते ही हजरत इमाम हुसैन को यह समझने में देर नहीं लगी कि यजीद अब हमारे खून का प्यासा हो चुका है। उन्होंने इस्लाम धर्म की रक्षा का संकल्प कर तथा अपने साथ 72 परिजनों व सहयोगियों का एक छोटा सा दल लेकर मदीना छोड़कर इराक स्थित करबला कूच कर गए। और करबला में फुरात नदी के किनारे अपने तंबू गाड़ दिए। यजीद के लश्कर ने अपने सैनिकों से मोहर्रम की सात तारीख को हजरत हुसैन के तंबू फुरात नदी के किनारे से दूर करवा दिए ताकि इन लोगों को पीने के लिए पानी न मिल सके। यजीद के इस आदेश का पालन करने वाले सेनापति जिनका नाम हुर था उन्हें भी यजीद का यह आदेश मानवता के विरुद्ध पतीत हुआ और संभवतः इतिहास की यह भी एक अद्भुत घटना है कि वही यजीदी सेनापति हुर जिसने 7 मोहर्रम को यजीद का पक्ष लेते हुए हजरत हुसैन के कैंप को फुरात नदी से दूर हटवाया था मात्र दो दिन बाद वही सेनापति हुर अपने बेटे व गुलाम के साथ 9 मोहर्रम की रात में हजरत इमाम हुसैन से जा मिला और उनसे क्षमा मांग कर उन्हीं की ओर से यजीदी सेना के विरुद्ध सपरिवार युद्ध करने की इजाजत मांगी। हजरत इमाम हुसैन ने उसे गले लगाकर माफ किया। इतिहास गवाह है कि यजीद की सेना के विरुद्ध हजरत इमाम हुसैन की ओर से युद्ध करते हुए करबला में सबसे पहली शहादत देने वाला वही सेनापति हुर तथा उसका बेटा व उसका गुलाम था। इस पकार सुबह से शाम तक की 10 मोहर्रम की मात्र एक दिन की लड़ाई में अपने पूरे परिवार व साथियों को इस्लाम के सिद्धांतों की रक्षा के लिए कुर्बान कर हजरत इमाम हुसैन ने पूरी दुनिया को साफतौर पर यह बता दिया कि इस्लाम जुल्म, बर्बरता, हैवानियत तथा अत्याचार करने अथवा सहने का नहीं बल्कि धैर्य, कुर्बानी देने, सच्चाई की राह पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने तथा धर्म के पक्ष में अपनी आवाज बुलंद करने का नाम है। जब तक संसार कायम रहेगा तथा मानवता सलामत रहेगी तब तक हजरत इमाम हुसैन व उनक परिजनों की कुर्बानी दुनिया के लिए एक पजवल्लित मशाल के रूप में रोशनी देती रहेगी। रिपोर्ट कैमरा मैन राहुल कुमार के साथ बद्री गुप्ता लातेहार ब्यूरो की रिपोर्ट