अमित कुमार झा, इंडिया न्यूज नाउ।
_महत्व व इतिहास: बांका जिले के रजौन थानाक्षेत्र अंतर्गत सिंहनान गांव में भव्य दुर्गा मंदिर हैं, जहां आज भी पारंपरिक एवं विधिवत् तरीके से कायस्थ समाज द्वारा दुर्गा पूजा संपन्न किया जाता हैं. इस मंदिर में जो भी भक्त श्रद्धा से मन्नत मांगता हैं उसकी मुराद अवश्य पूरी होती हैं. अटूट आस्था के ही कारण देश के विभिन्न इलाके में नौकरी के लिए गये ग्रामीण दुर्गा पूजा में निश्चित ही गांव आते हैं और मां दुर्गा की पूजा करते हैं. ग्रामीण बेसब्री से इस पर्व का इंतजार करते हैं, क्योंकि वे मां दुर्गा की पूजा करने के साथ-साथ अपने परिवार व मित्रों से मिलते हैं. मूल मंदिर की स्थापना स्व0 चौआलाल दत्ता ने वर्ष 1855 के आस-पास की थी. उन्होंने मंदिर में पिण्डी पर मां का श्रृंगार ( सिंदूर स्वरूप प्रतीक ) स्थापित कर पूजा-अर्चना प्रारंभ की जहां आज राढ़ी कायस्थ समाज के सातवें वंशज एवं ग्रामीण पूजा-अर्चना करते हैं.
*_पूजा पद्धति:-_* चोवालाल दत्ता के वंशज मेढ़पति परिवार के जितेंद्र शेखर दत्ता जो कि सी0आर0पी0एफ ( C.R.P.F) मोकामा में सब इंस्पेक्टर पद पर तैनात हैं. बताते हैं कि समाज के लोग सदैव परंपरा का निर्वहन करते हुए पूजा काफी विधान से करते हैं. यहां बोधनवमी के दिन ग्रामीण चांदन नदी से प्रतीक स्वरूप माता को मंदिर लाते हैं और माता का आगमन मानकर पूजा प्रारंभ की जाती हैं. इस दिन नौ कौड़ी को लुटाया जाता हैं जिसे पाने के लिए काफी ग्रामीण मौजूद रहते हैं. इसे पाना शुभ होता हैं और घर में सिंदूर के कीया में रखा जाता हैं. इस दिन से परंपरागत ढ़ोल बजाया जाता हैं जिसे ” डगरो” कहा जाता हैं. ढ़ोलिया दुर्गा पूजा तक ढ़ोल बजाते हैं और प्रत्येक पूजा के पहले घर-घर जाकर ढ़ोल बजाकर पूजा संबंधी की सूचना देते हैं.
एक पूजा से लगातार दीपक जलाकर सप्तशती का पाठ होता हैं. चार पूजा के दिन पौ फटने के पूर्व “छटपटो” लाया जाता हैं. छह पूजा को सायं “गंधपूजा” किया जाता हैं, जिसमें ‘आरता’ की बलि दी जाती हैं. षष्ठी को ही माता का साज- श्रृंगार किया जाता हैं और मूर्ति में प्राण- प्रतिष्ठा की जाती हैं. मूर्ति का चेहरा ( महास) वर्ष 2014 को छोड़कर प्रारंभ से अभी तक वहीं हैं, जिसे एक ही खानदान का कारीगर बनाता हैं. ग्रामीण सात पूजा को प्रात: पिण्डी पर मेड़ एवं उसपर दूसरा मेड़ रखते हैं. तदोपरांत “गोसाईं” लाने चानन नदी जाते हैं जहां विधिपूर्वक पूजा होती हैं. कायस्थ परिवार से दो कुंवारे युवक डोली के सहारे चानन नदी से नवपत्रिका प्रवेश कराते हैं और मंदिर में सात कौड़ी लुटाया जाता हैं. जिसके उपरांत सप्तमी पूजा की जाती हैं और शाम में पाठा की बलि दी जाती हैं.
चिराग, पाठा, गलसेदी एवं अन्य पूजा सर्व प्रथम मेढ़पति परिवार के यहां से की जाती हैं. अष्टमी को मां दुर्गा अपने भव्य रूप में रहती हैं. लोग सुबह चिराग का प्रज्ज्वलन करते हैं और पूजा-पाठ करते हैं. मंदिर के पुजारी के द्वारा अष्टमी की कथा कही जाती हैं जिसे सभी माताएं श्रवण करती हैं. इस दिन ग्रामीण महिलाएं डलिया चढ़ाती हैं. अष्टमी तिथि की संध्या को ‘चिराग संकल्प’ होता हैं एवं आठ बकरों की बलि दी जाती हैं. नवमी के दिन भी कुछ लोग चिराग जलाते हैं और रात में सिंहनान एवं आस-पास के गांवों से ग्रामीण बलि देने आते हैं. मंदिर में चिराग जलाने का स्थान एवं पाठा बलि का काम सदियों से नियत हैं. लगभग चार सौ बकरे की बलि दी जाती हैं. विशेष मुराद पूजा होने पर जोड़ा पाठा की बलि दी जाती हैं.
दसमीं को सूर्योदय से पहले चिराग को उठाकर लोग अपने-अपने घर ले जाते हैं. रात में भोग लगाने के उपरांत महिलाओं के द्वारा मां दुर्गा का ‘गलसेदी’ किया जाता हैं और फिर ग्रामीण अपने कंधे पर मेड़ को चानन नदी ले जाते हैं जहां मूर्ति विसर्जन की जाती हैं. इसके बाद आपस में सभी गले मिलते हैं जिसे विजया मिलन कहा जाता हैं. दशमी अर्द्धरात्रि में अपराजिता पूजा कर मां दुर्गा को फिर से आने का आह्वान किया जाता हैं जिसमें कुढ़िया भस्म लुटाया जाता हैं और बलि प्रदान की जाती हैं.
*_मेला एवं प्रशासन:-_* तीन दिनों तक मंदिर परिसर में मेला लगता हैं जिसे देखने आस-पास सभी गांव के लोग आते हैं. रजौन थाना के थानाध्यक्ष की देख-रेख में कानून व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त रहती हैं. इसके अतिरिक्त दुर्गा पूजा को सफल बनाने हेतु विधायक, मुखिया, सरपंच, एवं समस्त ग्रामवासी सहयोग करते हैं.